मिमिक्री और बॉटल
पहले की महामहिम की मिमिक्री,
तब भी घूमी थी जनता की चक्री।
हुआ था उसका भी पुरजोर विरोध,
कल्याण के लिए ही था वह क्रोध।
सोचा कि यह अब संभल जाएंगे,
कल्याण है खुद कल्याण कर पाएंगे।
पहले की महामहिम की मिमिक्री,
तब भी घूमी थी जनता की चक्री।
समझ न आता क्यों खो देते आपा?
ऐसा लगता है एक ही राग अलापा!
हे राम जेपीसी में कर दिया उतापा।
पहले की महामहिम की मिमिक्री,
तब भी घूमी थी जनता की चक्री।
कल्याण-अभिजीत की बहस तगड़ी!
पानी की बॉटल ने ऐसी राह पकड़ी।
लो बच गए अंबिका शनि हुआ वक्री,
वे स्वयं हो गए घायल अब तो अख़री।
संजय एम. तराणेकर
(कवि, लेखक व समीक्षक)