राजनैतिक थर्मामीटर ! 2009 के लोकसभा चुनावों में एक मंच पर थे मुलायम सिंह और कल्याण सिंह
जितेन्द्र सिंह पत्रकार
उत्तर प्रदेश कानपुर (अमन की शान ) आज देश में हिंदुत्व का मुद्दा बहुत ही प्रमुख मुद्दे के रुप में हावी है और देश की जनता ने भी इस मुद्दे पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी सरकार को प्रचंड बहुमत मिला और तब से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी में हिंदुत्व की भाषा बोलने वाले फायर ब्रांड नेताओं ने हिंदुत्व की एक नई इबारत लिखी। उस समय कल्याण सिंह को कट्टर हिन्दू वादी नेता माना जाता था जबकि मुलायम सिंह यादव को मौलाना मुलायम, मुल्ला मुलायम सहित तमाम नामों से हिंदुत्व वादी पुकारने लगे थे।
आज की नई युवा पीढ़ी शायद इन बातों को नहीं जानती होगी। क्यों कि तमाम राजनैतिक मतभेदों के बावजूद अटल बिहारी बाजपेयी राजीव गांधी और राजीव गांधी अटल बिहारी बाजपेयी की प्रतिभा को पहचानते थे। मुलायम सिंह यादव अटल के बहुत बड़े प्रशंसक थे, राजनाथ सिंह भी मुलायम सिंह यादव को बहुत मानते थे। दरअसल भारतीय जनता पार्टी में जो आज हिंदुत्व कहा जाता है वह एक राजनैतिक प्रयास है। भाजपा हर चुनाव में अपने हिंदुत्व के मुद्दे को आगे बढ़ाती है और यह सफल भी हो रहा है।
यदि आप भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को अलग कर दें तो आज भारतीय जनता पार्टी में बहुत से हिंदुत्व वादी नेताओं की ऐसी संख्या दिखाई देगी जो पहले देश में सेक्युलर चोला ओढ़कर भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ आवाज उठाते थे। लेकिन जैसे जैसे भारतीय जनता पार्टी की सरकारें अपने पैर जमाने लगीं तो वो सेक्युलर नेता हिंदुत्व का चोला ओढ़कर भाजपा में शामिल हो गए। या भाजपा के साथ चले गए।
उत्तर प्रदेश में वो तमाम नेता जो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में सेक्युलर नेता थे वो और केंद्र में कांग्रेस में जो कभी खानदानी सेक्युलर नेता थे वो आज हिंदुत्व की आवाज बुलंद कर रहे हैं। और इसका उन्हें लाभ भी मिल रहा है।
आज भाजपा में जिस तरह से तमाम हिंदूवादी नेताओं की छवि है एक समय पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की यही छवि देश में थी। राम मंदिर आंदोलन को बढ़ाने में उनका बहुत बड़ा योगदान था।
लेकिन कल्याण सिंह ने 2009 में भारतीय जनता पार्टी से मतभेदों के चलते पार्टी छोड़ दी थी और समाजवादी पार्टी के साथ नजदीकियां बढ़ाईं। हालांकि, उन्होंने सपा की औपचारिक सदस्यता नहीं ली थी। उनके बेटे राजवीर सिंह और करीबी सहयोगी कुसुम राय ने सपा का दामन थामा था। मुलायम सिंह यादव ने इसे गठबंधन नहीं, बल्कि दोस्ती का नाम दिया था। 2009 के लोकसभा चुनावों में, कल्याण सिंह ने सपा के समर्थन से एटा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और विजयी हुए। ये वो हिंदुत्ववादी नेता थे जिनके कारण आज राम मंदिर को लोग देख रहे हैं और अयोध्या के विशाल भव्य मंदिर में प्रभु श्री राम के दर्शन कर रहे हैं।
समय बीता और फिर से कल्याण सिंह समाजवादी पार्टी से अलग हो गए। बाद में, 2014 में, कल्याण सिंह ने भाजपा में वापसी की और राजस्थान के राज्यपाल के रूप में नियुक्त हुए। कल्याण सिंह भाजपा के वो नेता रहे हैं जो अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के साथ भाजपा का झंडा बुलंद करते थे। देश की राजनीति उस समय और आज के समय में काफी अंतर आया है। आज़ जिस तरह से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं और उसमें भाषा की मर्यादा को लांघ दिया जाता है शायद पहले ऐसा नहीं था। राजनैतिक प्रतिद्विंदिता केवल चुनाव के समय दिखती थी। लेकिन अब तो एक पल के लिए भी राजनैतिक दल किसी दूसरे के कार्यों का बखान नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें डर से कि उनका यह बयान कहीं हम पर भारी न पड़ जाए। ऐसी भाषाओं का प्रयोग किया जाता है कि शायद आम दिनों में हम इस तरह की भाषा का प्रयोग कर भी न सकें। कहीं न कहीं सोशल मीडिया का भी इसमें बहुत बड़ा योगदान है। क्यों कि जिस तरह से विभिन्न दलों और उनके प्रशंसकों के द्वारा सोशल मीडिया पर जो भाषा प्रसारित की जा रही है कहीं न कहीं उसका असर हम सब पर हो रहा है।
लोकसभा हो राज्यसभा हो या फिर विधानसभा विरोध तब भी होता था। बहसबाजी तब भी होती थी लेकिन उसमें भी भाषा की मर्यादा को बचाया जाता था। हमने मुलायम सिंह यादव और कल्याण सिंह का उदाहरण इसलिए दिया क्योंकि ये एक ही समय के कट्टर राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी थे और उसी काल में एक साथ आ गाये।
यदि आप केन्द्र और उत्तर प्रदेश में नजर डालें तो आप एक लबी लाइन नेताओं की पाएंगे जो कभी दूसरे ख़ेमे में थे। और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे यदि सत्ता परिवर्तन होते हैं तो यह इसी तरह हिंदुत्व और सेक्युलर का झंडा बदलने में देर नहीं करेंगे। राजनीति के चालीस साल हमने बड़े ही नजदीक से देखे हैं और यही पाया है कि कुछ नेताओं को छोड़कर सत्ता उनके लिए सबसे बड़ी चीज है। और कभी हिंदुत्व और कभी सेक्युलर बन जाना उनके लिए बड़ी बात नहीं है।
आज की राजनीति के विचारों, सिद्धांतों में भी चतुराई आ गई है। कोई भी कार्य करने से पहले उसके हित और अनहित को परखा जाता है और यदि वह जनता में लोकप्रिय होता दिखता है तो उस पर एक रणनीति के तहत बोलने का अपनी बात रखने का प्रयास शुरू कर दिया जाता है। जनता तब भी भोली थी और आज भी भोली ही है। जनता को हमेशा से ही अपने रंग में रंग लिया जाता रहा है।
हिंदुत्व आज का प्रभावशाली मुद्दा है जो सभी मुद्दों पर भारी पड़ता दिखाई दे रहा है और भविष्य की राजनीति का निर्धारण भी कर रहा है। वहीं सेक्युलरिज्म अपने आप में भटकता दिखाई दे रहा है। क्यों कि हिंदुत्व एक जगह इकट्ठा है जब कि सेक्युलरिज्म कई खापों में बंटा हुआ है। और भविष्य की राजनीति पर सेक्युलरिज्म पर हिंदुत्व का प्रभाव होता दिखाई दे रहा है।